शनिवार, 25 दिसंबर 2010

यहां हल नहीं डंडे से होती है खेती

रूप कुमार, भागलपुर ।बालू से तेल निकालने की बात आपने लोकोक्ति के रूप में सुनी होगी। लेकिन सुविधा व संसाधन विहीन दियारा के किसान इसी बालू से तेल निकालकर अपनी किस्मत चमका रहे हैं। दियारा की इसी खेती ने वैज्ञानिकों को भी काफी प्रभावित किया है। गंगा नदी किनारे स्थित दियारा के किसान हर साल बाढ़ का पानी उतरते ही लाठी से घोंप कर मकई की बुआई करते हैं। लाठी ही उनके लिए हल का काम करती है। लाठी से किए छेद में मक्का का बीज डालकर मक्के की मुंहमांगी उपज लेते हैं। इस विधि से मक्के लगाकर प्रति हेक्टेयर 60 से 65 क्विंटल की उपज लेते हैं। खेती के इस तरीके की चर्चा सुन शनिवार को बीएयू के डीन एग्रीकल्चर सह प्राचार्य डॉ. अर्जुन प्रसाद सिंह के नेतृत्व में वैज्ञानिकों की एक टीम ने इस खेती का जायजा लिया। टीम में मक्का वैज्ञानिक डॉ. एस. एस. मंडल, डॉ. शंभु प्रसाद शामिल थे। मकई के लहलहाते पौधों ने वैज्ञानिकों को दिल जीत लिया। किसानों ने बताया कि दियारा में हर साल मक्के की खेती इसी घोंप पद्धति से की जाती है। ऐसा इसलिए किया जाता है कि क्योंकि पानी उतरने के बाद जमीन में कीचड़ होता है। ऐसे में जुताई संभव नहीं है। सो, इस दलदली जमीन में वे लाठी से मकई को टोभते हैं। वैज्ञानिकों ने किसानों को सुझाव दिया की जिंक व फास्फोरस डालकर पौधों को और ताकत प्रदान कर सकते हैं। किसान नीरज साहू, उमाशंकर मंडल, खंतर मंडल आदि ने वैज्ञानिकों से कहा कि उन्हें वैज्ञानिकों का सहयोग मिले व मक्के के बाद खेती का कोई तरीका बताया जाए तो वे दियारे की जमीन को सोने का अंडा देने वाली मुर्गी बना सकते हैं। डीन एग्रीकल्चर डॉ. एपी सिंह ने किसानों को मकई के बाद बालू वाली मिट्टी में कद्दु, नेनुआ, खरबुज सहित लत्तर वाली अन्य सब्जियों की खेती करने की सलाह दी।

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