शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

बिटिया की डोली पर भी मंहगाई की मार

हाय रे मंहगाई। बाबुल के हजारो सपने। बिटिया के लाखों अरमान। सगे-संबंधियों की करोड़ों ख्वाहिशें। इन अरमानों व ख्वाहिशों के बीच आज कोई भी मंहगाई की मार से बच नहीं पाया है। मंहगाई ने लोगों के सपनों के महल में सेंध लगाकर उनके अरमानों को लूटा है। तभी तो आज घरों में सजे मंडपों की जगह मंदिरों व न्यायालयों में सात जन्मों तक साथ रहने की कसमें खाने के प्रचलन में बेतहाशा वृद्धि हो गई है।

बूढ़ानाथ मंदिर के प्रबंधक बाल्मिकी कुमार सिंह की मानें तो अब ज्यादा आय वाले लोग भी पहाड़ सरीखे हो चले शादी के खर्चो से बचने के लिए मंदिरों में बेटे-बेटियों की शादी करते हैं। वे कहते हैं कि आडंबरों से भरे समाज में इस बढ़ते प्रचलन ने एक नए सोच का संचार किया है। मंदिरों व कोर्ट में शादी कर लोग दहेज जैसी कुप्रथाओं से भी समाज को बचाने का काम करते हैं। बाल्मिकी सिंह बताते हैं कि मंदिरों में शादियां एक हजार के खर्चे में संपन्न हो जाती हैं। वहीं घर से शादी करने का मतलब है लाखों का खर्चा। उन्होंने बताया कि चालू वर्ष में बूढ़ानाथ मंदिर से अब तक 600 से अधिक शादियां हो चुकी हैं।' श्री सिंह की बात में हमारे समाज की कड़वी सच्चाई है। लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि कहीं न कहीं पिता के चेहरों पर घर से बेटी विदा न कर पाने का मलाल तो रह ही जाता है। स्वरूप लाल बताते हैं कि 'सभी माता-पिता बेटियों की शादी धूमधाम से करना चाहते हैं। लेकिन कई मध्यम व निम्नवर्गीय परिवार आज लाखों का बोझ नहीं उठा पाते हैं। खोखले स्वाभिमान से ग्रस्त होकर व कर्ज लेकर बेटियों की शादी करने के पहले लोग अब दो बार सोचते हैं। क्योंकि उन्हें कर्ज चुकाना भी पड़ता है। फिर अच्छा घर-वर मिले तो आपसी सामंजस्य से फिजूल खर्ची से बचा जा सकता है।

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